चाय का प्याला और हम: एक कविता

चाय का प्याला लिए
गुनगुना रहे हैं
इस कुदरत की भी खुसर फुसर जारी है
देख रहा हूँ कि
मेरा यार आसमाँ में यूँ देखता है
कि जैसे कोई अपनी
नयी दुल्हन के घूँघट
के अंदर झाँक रहा हो।

मैं, उसमे खोया हूं,
वो आसमां में।
बात नहीं कर रहे हम
पर बहुत कुछ कह चुके हैं।

दिक्कत तो ये है
कि यहाँ से जाने का मन नहीं है
और ये बात हम दोनों जानते हैं।
पर जब बात करने को कुछ
न हो तो वक़्त कैसे गुज़रे गए
और भाई, बहाना क्या बनायें-

"एक और कप लेगा? (चाय )"
"हाँ।"




PS: This poem was there in my drafts for more than a year now. I've scheduled it for Dec.'17. I don't know when I wrote the first stanza and who was the muse. Though I know who was but let it be. I like the way it progresses now. It's strange how things are left just the way they are to be treated and tweaked at their destined time. [For ref. today, the date of completion of the poem is 25th February 2018]

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