वो इश्क़ ही था

वो कौन सा दौर था, मीर
जब लोग तुम्हें सुना करते थे;
तुम्हारे मिसरे को सुनकर
रुक से जाते थे कदम,
किसी का वो आधा मिसरा पूरा करते थे।

यूँ ही दोस्त बन जाते थे
ग़ालिब को याद करके,

वो इश्क़ जो था-
इश्क़ ही कहियेगा
और क्या?

भला गुजरे हुए ज़माने को कौन याद करेगा?

ये तो दीवाने हैं जिनसे दुनिया में तुम्हारा नाम है-
ग़ालिब या मीर या फैज़

जो भी तुम थे
जो भी तुम हो
जो भी लिखा
जो भी दिया

अगर तुम्हें याद न किया होता,
तो क्या वो दौर रहता और क्या तुम?
क्या मीर का मिसरा रहता
और क्या ग़ालिब की हवेली?

क्यों मैं अपनी सियाही जाया करता
और क्यों ये आशिक़ पढ़ते ?

वो दौर नहीं था,
इश्क़ कह लीजिए
जी हां, इश्क़ ही कहना ठीक रहेगा।

अब बहस-बाज़ी छोड़दो
वो इश्क़ ही था,
और उसकी याद में लाखों लिखेंगे
अरे खुश हो ग़ालिब,
हंस पड़ मीर
इस बहाने थोड़े शायर तो बनेंगे।

~ सौरभ 'अंगीरा' शर्मा



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